निर्णय की पृष्ठभूमि
तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि ने नवंबर 2023 में राज्य विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजा था, जबकि ये विधेयक पहले ही विधानसभा द्वारा पुनर्विचारित किए जा चुके थे। इस पर सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशीय पीठ ने 8 अप्रैल 2025 को निर्णय सुनाया, जिसमें राज्यपाल की कार्रवाई को अवैध और संविधान के विपरीत बताया गया। इस निर्णय में राष्ट्रपति के लिए भी विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा निर्धारित की गई।संविधानिक प्रावधान और न्यायालय की व्याख्या
संविधान के अनुच्छेद 201 में यह प्रावधान है कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति निर्णय ले सकते हैं, लेकिन इसमें कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस अनुच्छेद की व्याख्या करते हुए कहा कि राष्ट्रपति को ऐसे विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना अनिवार्य होगा। यदि इस अवधि से अधिक समय लगता है, तो देरी के कारणों को दर्ज करना और संबंधित राज्य को सूचित करना आवश्यक होगा।न्यायिक समीक्षा और राष्ट्रपति की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति के निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। यदि राष्ट्रपति किसी विधेयक को अस्वीकार करते हैं, तो उन्हें इसके कारणों को स्पष्ट रूप से बताना होगा, ताकि राज्य सरकार उन कारणों को समझ सके और आवश्यकतानुसार विधेयक में संशोधन कर सके। इससे केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सहयोग और संवाद को बढ़ावा मिलेगा।केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव
यह निर्णय केंद्र और राज्य सरकारों के बीच संबंधों को संतुलित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया कि राज्यों को ऐसे विधेयकों पर केंद्र सरकार से पूर्व परामर्श करना चाहिए, जिन पर राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक हो सकती है। इसी तरह, केंद्र सरकार को भी राज्य सरकारों द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तत्परता से विचार करना चाहिए।सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र में विधायी प्रक्रियाओं की पारदर्शिता और समयबद्धता सुनिश्चित करने की दिशा में एक मील का पत्थर है। यह निर्णय न केवल राष्ट्रपति की भूमिका को स्पष्ट करता है, बल्कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सहयोग को भी प्रोत्साहित करता है। इससे यह सुनिश्चित होगा कि विधेयकों पर अनावश्यक देरी न हो और जनहित में त्वरित निर्णय लिए जा सकें।
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